वीर सावरकर : अनुरोध का सत्य

वीर सावरकर : अनुरोध का सत्य


Vinayak Damodar Savarkar: Jayastute Jayastute ...भारत में राष्ट्रवाद का अन्य विचाधाराओं पर हावी होने के साथ जहाँ  एक ओर विनायक दामोदर सावरकर का विषयवार चर्चा बढ़ा है वही इस स्वरुप के विरोधी अक्सर सावरकर के योगदानों को कम कर आंकते हैं  . ऐतिहासिक तथ्यों का सुविधानुसार उपयोग इस लड़ाई को और भी आंच दिया जाता है . ऐसे में सावरकर और भगत सिंह की तुलना करने से भी लोग बाज नहीं आते . इस क्रम में सावरकर द्वारा उनके माफीनामे को घिनौना माना  जाता है . एक आम नागरिक के रूप में राष्ट्रिय महापुरुषों के ऊपर ऐसी चोचलेबाजी कभी-कभी असहनीय हो जाती है .



सावरकर से जुडी घटनाओं पर बारीक़ नजर दें तो सर्वप्रथम जो पांच वर्ष उन्होंने कानून  के छात्र के रूप में लंदन में बिताये , इस दरम्यान क्रन्तिकारी आन्दोलन कर उन्होंने ब्रिटिश सरकार से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की . उन्होंने भारत से यूरोप , यहाँ तक कि अमेरिका में भी  सामान सोच के लोगों का एक नेटवर्क तैयार किया , साथ ही आयरलैंड  , फ़्रांस  , इटली  , रूस  और अमेरिकन नेताओं , क्रांतिकारियों और पत्रकारों  के साथ वैचारिक  सम्बन्ध कायम किये  , जिसके  कारण  ब्रिटिश सरकार  वैश्विक परिदृश्य में चर्चा का विषय बन पाया . इसमें कोई शक नहीं है कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सबसे खतरनाक राजद्रोही के रूप में दर्शाया . चुकि  सावरकर लंदन में अधयन्नरत थे इसीलिए 1881 का भगोड़ा अपराधी अधिनियम उन पर लागू नहीं होता था ,इसलिए उन्हें भारत भेजते हुए यह भी सुनिश्चित किया कि सावरकर को अपना बचाव या अपील करने का मौका न मिले . यहाँ पर उन्हें 2 जन्मों की सजा दी  गयी , कुल 50 साल . उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर के साथ उन्हें अंडमान के सेल्लुलर जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया गया . 2 जन्मों की कैद , वो भी तब जब ब्रिटिश इसाई धर्मब्लाम्बी थे और  दुसरे जन्म में उनका  विश्वास नहीं होता   . ब्रिटिश दस्तावेज  बताते हैं कि वो लोग सावरकर की उपस्थिति से कितने डरे हुए थे , इसलिए यथा संभव उन्हें भारत की मुख्य भूमि से दूर रखने का प्रयास किया गया .



सेल्लुलर जेल में  उन्हें हर संभव यातना से गुजारा गया . जंजीरों से बांध कर उल्टा लटकाना , उनकी देशभक्ति के लिए गरियाना , मील में बैलों  की तरह बांध कर कोल्हू खिंचवाना , इसके बाद हर जरुरी सुविधा जैसे कि टॉयलेट और पानी से दूर रखना , सड़ा हुआ खाना देना बल्कि खाने में मक्खी और जोंक के टुकड़े दिए जाते थे . यह पूरी तरह से राक्षसों को कैद करने वाली जगह  थी .



1913 में सावरकर ने दुसरे कैदियों के साथ मिल कर अमानवीय व्यवहार के खिलाफ जेल में भूख हरताल और असहयोग की शुरुआत कर दी . बांकी भारत अपने साथियों को मिल रहे सजा के बारे में बिलकुल अनभिज्ञ  था . इसी बीच इंडियन एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट लीक हुयी कि सावरकर अपने साथियों के साथ मिल कर जेल में ही बम बनने की योजना पर काम कर रहे थे . बात ऊपर तक गयी तो अक्टुबर 1913 को  सर रेगीनाल्ड एच. क्रेद्दोक , जो उस समय भारत सरकार में गृह सदस्य थे , ने सेल्लुलर जेल जाने का फैसला किया और कुछ राजनीतिक कैदियों से बातचीत कर उनकी समस्याएं सुनी . सावरकर और दुसरे राजनीतिक कैदी - बारिन घोष , नन्द गोपाल , हृषिकेश कांजीलाल और सुधीर कुमार से बातचीत की गयी और फिर उन सबों ने याचिकाएं भी जमा कीं . यह प्रक्रिया ब्रिटिश भारत में सभी राजनीतिक कैदियों के लिए वैध था , ठीक वैसे ही जैसे उन्हें कोर्ट में अपने वकील के माध्यम से अपना  बचाव का मौका मिलता था . क़ानूनी शिक्षा प्राप्त करने के कारण  सावरकर को इसकी अच्छी  जानकारी थी और इसलिए  उन्होंने अपने आप को स्वतंत्र कराने या जेल में अपनी स्थिति बेहतर करवाने के लिए हर प्रावधानों का उपयोग करना चाहा . सावरकर दुसरे कैदियों को भी अक्सर समझाया करते थे कि क्रातिकारियों का प्राथमिक कर्तव्य खुद को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़वाना था जिससे कि वो मातृभूमि की सेवा करने में फिर से जुट सकें .





14 नवम्बर 1913 को क्रेद्दोक को सौपीं अपनी याचिका में सावरकर ने तर्क दिया कि बलात्कार , मर्डर , चोरी और दुसरे अपराधों में सजा पाए आम अभियुक्तों को तो उनके अच्छे व्यवहार के आधार  पर सहूलियतें दी  जाती थी या 6 - 18 महीने के बाद काम करने के एवज  पर उन्हें छोड़ दिया जाता था , लेकिन  'विशेष श्रेणी का कैदी' होने के वाबजूद उनके लिए ये प्रावधान उपलब्द नही थे . बल्कि  अच्छे भोजन और बरताव की मांग पर उन्हें यह कहते हुए इंकार कर दिया गया कि वो एक 'सामान्य दोषी' हैं . वे यदि किसी अन्य भारतीय जेल में होते तो यह सब आसानी से हांसिल किया जा सकता था पर सेल्लुलर जेल में वो साल में एक से अधिक चिठ्ठी भी नहीं  भेज सकते थे  और न ही  अपने परिवार वालों  से  मिल सकते थे .





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 चुकि 1909 के   मोर्ले - मिन्टो सुधार के तहत भारतियों को सरकार और शिक्षा में भाग लेने के बेहतर अवसर प्राप्त हुए थे . इसीलिए सावरकर ने अपने याचिका में यह जोर देकर कहा कि उन्हें तब बन्दुक उठाने की जरुरत नहीं रह गयी थी और मुख्य धारा की राजनीति में जुड़ कर और सरकार के साथ मिल कर काम कर भारतियों के लिए बेहतर संवेधानिक भागीदारी को पूर्ण करने में ही उनकी  ख़ुशी थी  .





''मैं किसी प्रकार का विशेष सुविधा नहीं मांग रहा,'' उन्होंने कहा , ''पर राजनितिक कैदी होने के नाते मेरा विश्वास है कि  विश्व के  किसी स्वतंत्र राष्ट्र  में सभ्य प्रशासन इतना तो कर ही सकता है ; इतना नही तो केवल वो रियायत और एहसान जो सबसे कुख्यात और इरादातन  अपराधियों को दिया जाता है ?'' यह  पूर्णरूप से ब्रिटिशों के असभ्य होने का अप्रत्यक्ष मजाक उड़ाने जैसा था .





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दुर्भाग्य से सावरकर को उनकी याचिका के लिए दुत्कारने वाले वही मानवाधिकार कार्यकर्त्ता  हैं जो कसाब , याकूब मेमन और नक्सली और उनके वैचारिक सिरमोरों  की पैरवी करते फिरते हैं . याचिका की अंतिम पंक्ति जो विवाद को निमत्रण देता है , उसकी भी व्याख्या किसी से छुपी नहीं है : ''जो शक्तिशाली होता है वह दयालु होने की  जोखिम उठा सकता है और कहाँ कोई उदार माई का लाल लौट कर आया हो फिर  सरकार को माई बाप मानने को रुका है ?'' यह सन्दर्भ बाइबल से लिया गया था , यह कहना ठीक ही होगा कि वो जेलर  के धार्मिक भावनाओं को भड़का रहे थे .इस याचिका की केवल कुछ पंक्तियों के चुनिंदा उद्धरण को , उसके पूर्ण रूप या सन्दर्भ के बिना देखना बौद्धिक मूर्खता है .



मजेदार यह है कि , भारत से वापस जाते हुए क्रेद्दोक ने जहाज पर ही  लिखे अपने रिपोर्ट में कहा कि सावरकर ने जो भी किया उसके लिए उसे ''कोई पछतावा व्यक्त करने या पश्चताप करने के लिए नहीं कहा जा सकता'' . आगे उसने लिखा कि सावरकर काफी महत्वपूर्ण नेता है जिसे भगाने के लिए भारतीय अराजक तत्वों का यूरोपीय धरा  लम्बे समय से प्रयत्न कर रहा है . यदि उसे सेल्लुलर जेल से बाहर कहीं भी कैद किया जायेगा तो वो फरार होने में कामयाब हो जायेगा . उसके दोस्त आराम से किसी भी द्वीप पर स्टीमर से पहुँच कर और थोड़े पैसे बाँट कर ऐसा करने में सफल रहेंगें . निःसंदेह सरकार ने याचिका ख़ारिज कर दी और सावरकर के लिए कुछ नहीं बदला .


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प्रथम विश्व युद्ध शरू होते ही , सावरकर ने ओक्टुबर 1914 में दूसरी याचिका दी , जिसमें उन्होंने युद्ध में किसी प्रकार की सेवा जो भारत सरकार को अच्छा लगे , देने के लिए न्योता दिया . उसी याचिका में उन्होंने उन सभी कैदियों के सामान्य रिहाई की गुहार लगाई जिन्हें किसी राजनीतिक घटना के कारण सजा मिली थी . ऐसा कई ब्रिटिश उपनिवेश में किया जाता रहा था .


मजेदार बात यह है कि भारतीय राष्ट्रिय कोंग्रेस ने इस महत्वपूर्ण समय में ब्रिटेन को खुला समर्थन दिया था . जब युद्ध चल रहा था तो महात्मा गाँधी ब्रिटेन में ही थे जहाँ उन्होंने एक चिकित्सीय सेना भी बनाई. यह उसी तरह की थी , जैसे उन्होंने बोअर युद्ध (दक्षिण अफ़्रीकी युद्ध) के वक्त ब्रिटेन की मदद करने के लिए बनाया था और यहाँ तक कि इसके लिए उन्होंने गोल्ड मेडल भी जीता . 22 सितम्बर 1914 को जारी एक विज्ञप्ति में गाँधी जी को फिल्ड अम्बुलेंस ट्रेनिंग पुलिस के लिए भी बुलाया गया था . जनवरी 1915 को जब गाँधी जी भारत वापस आये तो युद्ध में ब्रिटेन को उन्होंने बिना किसी शर्त के समर्थन दिया क्योकि गाँधी जी को लगता था कि ब्रिटेन अभी मुश्किल परिस्थितियों में है , इसलिए ब्रिटेन को शर्मिंदा होने के लिए छोड़ देना या भारत की आजादी के की लड़ाई को आगे बढ़ाना ठीक नहीं होगा .



उन्होंने कहा कि 'इंग्लैंड की जरुरत' हमारे लिए एक मौका नहीं बनना चाहिए और फिर हमारे द्वारा लम्बे समय से की जा रही मांगों को भी युद्ध के अंत में पूरा किया जायेगा . गुजरात के गाँव - गाँव में घूमते हुए उन्होंने युद्ध में भाग लेने के लिए सैनिकों की न्युक्ति में अंग्रेजों की मदद की . उस वक्त दक्षिण भारत के गावों में सैनिक बनाने के लिए लोगों का अपहरण तक कर लिया जाता था , न गाँधी और न ही कांग्रेस ने कभी इसका विरोध किया . ये सब सावरकर के 1914 वाले याचिका से कितना अलग था ?


5 ओक्टुबर 1917 को राज्य सचिव एडविन शमूएल मोंटागु को दिए याचिका में सवारकर ने मोंटागु - चेल्म्फोर्ड सुधार को संदर्भित करते हुए ब्रिटेन को सीमित स्वशासन और भारतियों के लिए दो सद्नात्मक विधानसभा बनाने की बात को याद दिलाया . यह मांगे विश्व युद्ध में अंग्रेजों के समर्थन के बदले किये गए थे . उन्होंने भारत में होम रुल और भारत को कोमनवेल्थ का स्वतंत्र साथी बनाने की वकालत मजबूती से की . पर अंग्रेजों ने सवैधानिक आन्दोलन न होने का बहाना बनाया , सावरकर ने कहा कि जब देश में कोई संविधान ही नहीं था तो संवेधानिक आन्दोलन कैसे किया जा सकता था ? . लेकिन यदि वास्तव में तब कोई संविधान को अस्तित्व लाना हो तो इसके लिए काफी सारा राजनितिक , सामाजिक , आर्थिक और शैक्षिक कार्य करने की जरुरत थी , लेकिन यह तभी किया जा सकेगा जब सभी राजनितिक कैदियों को संतुष्ट किया जाये कि उन्हें अकारण जेल में बंद कर दण्ड नहीं दिया जायेगा . उन्होंने अन्तराष्ट्रीय कानूनों का हवाला दिया जैसे कि रूस , फ़्रांस , आयरलैंड और ऑस्ट्रिया में कैदियों की सजा माफ़ी एक आम प्रक्रिया बन गयी थी , जिसे उन देशों ने सिध्यांत के रूप में भी स्वीकार किया गया था . इस तरह सावरकर ने किसी अच्छे वकील की तरह अपने मामले का जिरह किया .



सबसे महत्वपूर्ण , इस याचिका में उन्होंने विशेष रूप से यह कहा कि ' यदि सरकार को लगता है कि इससे सिर्फ उनके जमानत पर ही असर पड़ेगा तो मुझे कैद में ही रखा जाये ; या यदि उनका नाम एक बड़ी रुकावट बन रहा है तो मेरा नाम लिस्ट से मिटा दिया जाये और दुसरे सभी कैदियों को छोड़ दिया जाये ; इससे मुझे उतनी ही संतुष्टि मिलेगी जितनी कि मेरी रिहाई पर मुझे मिलती .''



क्या ये शब्द कायर और मौकापरस्त ब्रिटिश पर असर डाल सकता था ?



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युद्ध कि समाप्ती के साथ ही , राजा जोर्ज पंचम के शाही फरमान के कारण पुरे भारत और अंडमान के सारे राजनितिक कैदियों को इकठ्ठे छोड़ा जाने लगा . बारिन घोस , त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती , हेमचन्द्र दस , सचिन्द्र नाथ सान्याल परमानन्द सहित सेल्लुलर जेल के राजनीतिक कैदियों को , एक निश्चित समय तक राजनीति में न आने की प्रतिज्ञां पर छोड़ दिया गया . इसी तर्ज पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी छोड़ दिया गया जिन्हें 1919 के असहयोग आन्दोलन के वक्त गिरफ्तार किया गया था . जबकि , इस तरह का कोई भी फायदा सावरकर और उनके बड़े भाई कोई नहीं मिला . सावरकर ने उसी समय फिर से याचिका दायर किया लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें फिर भी जेल में ही रखा क्योंकि उन्हें डर था कि सावरकर के बाहर आने के बाद 'अभिनव भारत' का नेतृत्व उनके हाथ में चला जायेगा जो एक बार फिर से क्रन्तिकारी आन्दोलन भड़का सकता था .




इसीलिए 20 मार्च 1920 को , सावरकर ने अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ एक बार फिर से याचिका दायर की . किसी भी याचिका में उन्होंने ये नहीं कहा कि वो अपने विद्रोही अतीत के लिए क्षमा प्रार्थी हैं .



1921 में जब सेल्लुलर जेल बंद होने को आया तो अंग्रेजों ने मई 1921 को सावरकर को रत्नागिरी जेल भेजने का फैसला लिया . उस समय तक , सावरकर ने पोर्ट ब्लेयर जेल में ही अच्छा खासा सुधार कर लिया था - जैसे कि पुस्कालय की स्थापना , सजा पाए लोगों के लिए शिक्षा की व्यवस्था और किसी प्रकार के दवाब के कारण धर्म परिवर्तन की समाप्ति . पर आगे समस्या फिर से बढ़ गयी क्योंकि रत्नागिरी जेल में इन सारी सुविधाओं को उनसे छीन लिया गया , इस तरह वो वहीँ पहुँच गये जहाँ से सजा की शुरुआत हुयी थी . सावरकर ने अपनी पुस्तक 'माय ट्रांसपोर्टेशन ऑफ़ लाइफ' में बताया कि उस वक्त उन्होंने तीसरी बार आत्महत्या करने का फैसला किया , ऐसा फैसला उन्होंने पहले 2 बार सेल्लुलर जेल में किया था . उनका असीम आत्मबल ही था कि वो इस तरह के विचारों से बाहर आ सके , अन्यथा कितने राजनीतिक कैदियों ने अपने आप को फांसी से लटका लिया था और कितने पागल हो गए थे . ऐसी मनःस्थिति में 19 अगस्त 1921 को दी गयी उनकी याचिका उनके टूटे हुए मन और निराशा को दर्शाता है, जिसके कारण उन्होंने राजनीति को त्यागने का फैसला लिया .



3 साल बाद 6 जनवरी 1924 को वो समय आया जब सावरकर को जेल से छोड़ने पर रत्नागिरी जिले के भीतर ही सख्त निगरानी रख उन्हें राजनीति से वंचित रखा गया . उन्होंने अपने जीवन के अगले 13 साल इसी प्रकार व्यतीत किया . पर उन्होंने सामाजिक सुधार के उन कार्यक्रमों को जारी रखा , जिससे जाति प्रथा और छुआछुत को समाप्त किया जा सके . हरिजन आन्दोलन और अम्बेडकर के आह्वान के काफी पहले ही सावरकर ने अंतरजातीय भोज की शुरुआत कर दी थी . इसके आलावा रत्नागिरी में पतीत - पावन मंदिर का निर्माण करवाया , जिसमें सभी जातियों के लोग पूजा करते थे .


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ऐसा कोई भी विश्लेषण जो सवारकर या उनके जैसे किसी भी स्वातंत्र्य वीर के छवि को धूमिल करती हो उसे कठिन प्रश्नों से गुजारने की जरुरत है .


हमें यह देखना होगा कि कोंग्रेस द्वारा किये गए आन्दोलन से परेशान होकर अंग्रेज ने भारत को छोड़ने का फैसला किया या फिर दुसरे विश्वयुद्ध के बाद उनकी स्थिति बद्तर हो गयी थी . ब्रिटेन को हर उस भारतीय से डर लगता था जिसकी दोस्ती दुसरे देश के नेताओं से थे . वो सुभाष चन्द्र बोष हों या सावरकर . दुसरे विश्व- युद्ध के वक्त भी कांग्रेस ने भारत को आज़ादी देने के शर्त पर ब्रिटेन को समर्थन देना की बात कही थी. पर मुस्लिम लीग ने तो ब्रिटेन का सपोर्ट बिना किसी शर्त के  किया था . और शर्त हो भी क्या सकता था यह बताने की जरुरत नहीं है . कोंग्रेस भी ब्रिटेन का समर्थन कर सकती थी पर उस वक्त तक सुभाष बोस और उनकी आजाद हिन्द फ़ौज का प्रभाव बढ़ गया था , इसलिए ब्रिटेन को समर्थन देने जैसा कोई कदम कोंग्रेस के जनाधार को नुकसान ही पहुंचाता.

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