गर्भ निरोध पर आंबेडकर के विचार

जनसँख्या नियंत्रण, जन्म नियंत्रण,जन्म दर नियंत्रण या गर्भ निरोध कुछ भी कह लें, ये सभी विषयों पर चर्चा  करते हुए सामान्यतः नारीवादी सिध्यांतों का हवाला दिया जाता है. नारीवादी सिध्यांत का वैश्विक इतिहास काफी गूढ़ रहा है. भारत में गर्भ निरोध का व्यापक प्रसार-प्रचार 1930 के बाद हुआ; जिसे शुरूआती सहायता इंगलैंड के कुछ संस्थाओं से मिली , और 1950 आते-आते फोर्ड फाउंडेशन और पापुलेशन कौंसिल जैसी अमेरिका की अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी इस ओर ध्यान दिया. आर्थिक और सामजिक रूप से पिछड़े परिवारों को टारगेट कर उनके बीच गर्भ निरोध के प्रोडक्ट्स बेचे गये. इस पहल में अमेरिकी नागरिक मार्गरेट संगेर का नाम सबसे आगे आता है, और भारत में रघुनाथ धोंडो कर्वे. इनलोगों ने अधिक जनसँख्या को सांस्कृतिक और आर्थिक पिछड़ेपन के रूप में परिभाषित किया और इसे नए राष्ट्रों के विकास में बाधक बताया.


इस काल खंड में, भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन गति पकड़ रही थी और भारतीय राष्ट्रवाद का एक दूसरा रूप भी उभर कर सामने आने लगा था. हालाँकि 1982 में जब बंकिम चन्द्र ने आनंदमठ में 'वंदेमातरम' का नारा लगा कर इसकी शुरुआत कर दी थी, और आगे चल कर बिपिन चंद्रपाल ने राष्ट्र को 'भारत माता' की संज्ञा देकर मातृभूमि और सपूत के रूपक को सुदृढ़ किया.


यह ऐसा काल था, जब आंबेडकर ने सबसे अलग हट कर अपनी बात कही. 1938 के बॉम्बे सम्मलेन में उन्होंने कहा, ''यदि पुरुषों को उस दर्द का सहन करना पड़े जो महिलाओं को प्रसव के दौरान होता है, तो उनमें से कोई भी अपने जीवन में एक से अधिक बच्चे को जन्म देने के लिए सहमत नहीं होगा.''  आंबेडकर के इस कथन के कई आयाम थे. उन्होंने बताया कि ज्यादातर महिलाओं का बच्चों की संख्या को लेकर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता है, जो कि अवश्य होना चाहिए. यदि ऐसा होगा तो महिलाओं को व्यक्तिगत सम्मान, स्वतंत्रता और राष्ट्र के दूसरे जिम्मेदारियों  को निभाने का मौका मिलेगा.

यह चमत्कारिक ही था कि आंबेडकर ने यौन सहमती को उस दौर में मुद्दा बनाया, जो आज कहीं ज्वलंत मुद्दा बन रहा  है. उन्होंने व्यावाहिक सेक्स की बात उस वक्त की, जिसे नारीवादी सिध्यांत अब जाकर कहीं छू पा रही  है.

इसी चर्चा में, आंबेडकर  ने दुसरे कई महत्वपूर्ण पहलुओं को भी छुआ. जैसे कि बच्चा जन्म देने के दौरान, औरतों को होने वाली शारीरिक पीड़ा. प्रसव के दौरान कई बार मेडिकल सहायता न मिल पाने से, महिलाओं की मृत्यु भी हो जाती  है. इस तरह आंबेडकर ने वर्ग हित से अलग हट कर सभी महिलाओं की बात की.

अंत में, उन्होंने एक रिजोल्युसन को पास कारने की मांग की, जिसमें सरकार द्वारा पोषित गर्भ निरोध का हल हो. पर उनका यह प्रस्ताव पास नहीं हो सका. प्रस्ताव को सिर्फ 11 सदस्यों ने समर्थन दिया ,जबकि 52 ने विरोध में मत प्रकट किये.


फिर भी पूरे विश्व को इसे समझने, कहने और विश्वास करने में संकोच नहीं होने चाहिए कि आज महिलाओं के लिए सस्ती चिकत्सा का प्रबंध हो रहा है, तो उस दर्शन की तर्कसंगत आधारशिला आंबेडकर ने ही खड़ा किया था, ना कि नारीवादी आंदोलनों ने.

हाँ, इस बात में कोई शक भी नहीं है कि महिलाओं की व्यक्तिगत गरिमा और समानता में नारीवादी सिध्यांत का काफी योगदान है. लेकिन हमें इस बात पर भी सहमत होना होगा कि भारत केन्द्रित इतिहास में भी काफी कुछ गर्व करने लायक है. 

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