AVATANS KUMAR’s moment in JNU (हिंदी में )

अगस्त की मस्त शाम , मैं जब भाषा विज्ञान स्नातक के रूप में जे एन यू पहुंचा , कुछ अलग पर बेहतरीन सा अनुभव हुआ , जैसे कि मैं किसी अनन्य समाज का पार्ट होऊं . यह इसकी विशिष्ट आभा और उत्कृष्टता ही है जो जे एन यू को कुछ हद तक परिभाषित करता है और उसे भारत के दुसरे विश्वविद्यालयों से अलग करता है . किसी के बारे में त्वरित राय बनाना कितना ठीक है यह मैं नहीं जानता , पर बोलने की आज़ादी , ढाबे पर बैठ वाद - विवाद , भोजनालय में भाषण इत्यादि ऐसी कुछ विशेषतायें थीं , जिन्हें मैंने तुरंत महसूस किया . थोरे दिनों में थोरी गहराई में जाने पर मालूम हुआ कि वह वाद- विवाद की महान परंम्परा , विचार का आदान - प्रदान एक विशिष्ट विचारधारा के सीमा में ही रह कर संभव है . मैं उन छात्रों को कैसे भूलूं जिन्होंने प्रो. मकरंद परांजपे को अशिष्ट रास्ता अख्तियार करते हुए उन्हें कार्यालय जाने से रोका विडिओ लिंक ---https://twitter.com/ARanganathan72/status/828517155477925889 ऐसी घटनाएँ एक उदारवादी और लोकतान्त्रिक शैक्षणिक संस्था के मूल्यों के खिलाफ है . दुनियां के किसी भी लेफ्ट वातावरण का उदहारण लेकर उसे इस सन्दर्भ अर्थात 'फ्री स्पीच' के सन्दर्भ में समझा जा सकता है , आपको वह काफी मायनों में जे एन यू जैसा ही प्रतीत होगा . आखिर यह वही विशष्टता और असहिष्णुता है जिसने मुझ जैसे नवागुन्त्कों को 'धोखेबाज' और 'मद्बुद्धी' कह कर पुकारा क्योकि मैं खांटी जे एन यू मॉडल में फिट नही बैठ सका . इसी विशिष्ट असहिष्णुतावादियों के द्वारा बाबा रामदेव और विवेक अग्निहोत्री को जे एन यू में घुसने तक नही दिया गया . लेफ्ट विंग छात्रों और प्राध्यापकों के भारी विरोध के कारण विश्वविद्यालय प्रशासन को बाबा रामदेव के व्याखान को रद्द करना परा , वो 22 वें अन्तराष्ट्रीय वेदान्त सम्मलेन के मुख्य वक्ता थे . वहीं दूसरी ओर फ़िल्मकार को उनकी फिल्म की आउटडोर स्क्रीनिंग करनी परी , जबकि फिल्म को सौन्दर्य शास्त्र एवं कला संकाय सभागार में प्रदर्शित किया जाना था , जिसे संकाय प्रमुख द्वारा अंतिम समय में रद्द कर दिया गया . कहने की जरुरत नहि है , फिर भी कह देता हूँ कि जे एन यू हमेशा से मार्क्सिस्ट - लेफ्टिस्ट का गड रहा है . विश्वविद्यालय स्थापना वीधेयक संसद में पास होने के तीन वर्ष बाद इसकी स्थापना 1969 में हुई . इसका लक्ष्य , ' राष्ट्रिय एकता , धर्मनिरपेक्षता , सामजिक न्याय , अन्तराष्ट्रीय समझ और सामाजिक समस्याओं को वैज्ञानिक दृष्टी से हल ' था . पर कुछ ही दिनों में ये सारे उदारवादी लक्ष्य , सस्ते राजनितिक लक्ष्यों की पूर्ति के रास्ते बन कर रह गये . उस समय इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थी , पर गाँधी- नेहरु की कांग्रेस ने उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधि के कारण पार्टी से निकल दिया था , इंदिरा के पास लोकसभा में बहुत से 45 सीटें कम थी , जिसकी पूर्ति के लिए इंदिरा लेफ्ट के तरफ झुकी . बल्कि उन्हें झुकना भी नही पड़ा क्योंकि वो खुद समर्थन देने को आतुर थे , पर सही कीमत पर . सही कीमत , 'समर्थन-समझौता' , 1971 जिसके तहत उस समय के मशहूर शिक्षाविद और खांटी लेफ्ट इतिहासकार सैय्यद नुरुल हसन को भारत का शिक्षा मंत्री बना दिया गया . हसन की नीतियों ने यह निश्चित किया कि जे एन यू लेफ्ट गढ़ बन कर उभरे . प्रोफेसरों की नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालय के ही पूर्व छार्त्रों पर निर्भर रहने के साथ - साथ वामपंथियों ने सामान विचारधारा के लोगों का स्वस्थ अन्तः प्रसार सुनिश्चित किया . जे एन यू छात्रों के नामांकन के लिए राष्ट्रिय प्रेवश परीक्षा का आयोजन करता है . जिसकी प्रक्रिया और प्रश्नों का प्रारूप इस तरह सेट किया जाता है कि 'अनचाहे'छात्र - छात्राएं अपना पैर न जमा पायें . परीक्षाएं सामान्यत दीर्घ प्रोश्नोत्री होते हैं , ऐसे प्रश्न को जान बूझ कर शामिल किया जाता है कि परीक्षारथी अपनी राजनितिक और विचारधारात्मक पहचान उत्तर में उगल दे . प्रश्नों को देखने के लिए लिंक पर क्लिक करें -- http://indiafacts.org/selection-engineering-political-filters-in-jnus-admission-process/ वहीँ अपनी ताकत को बरक़रार रखने के लिये विश्विद्यालय प्रशासन अप्रत्यक्ष पर चरणबद्ध तरीके से कुछ खास अध्ययन शाखाओं को खोलने से बचता रहा है . जैसे कि संस्कृत और भारतीय संस्कृति संकाय को खोलने के लिए काफी लोगों ने पुरजोर प्रयास किया . एक महत्वपूर्ण कला संस्थान होनेे के नाते विश्वविद्यालय से यह अपेक्षित है कि संस्थान संस्कृत के विकास के लिए छात्रों को छात्रवृति प्रदान करे . एक ओर जहाँ गैर - भारतीय भाषा विभाग यहाँ प्रारंभ से ही है वहीँ संस्कृत केंद्र को अम्ल में लाने के लिए 30 वर्ष का लम्बा इंतजार करना परा .
मेरे लिए यहाँ का सबसे निराशजनक पहलु , निराशाजनक और नकारात्मक सोच है . समाज कि बुराइयों को बढा-चढा कर बताना , विशेषकर जो हिन्दुओं से सम्बंधित हो . छात्रों को सकारात्मक सोचों से दूर रखा जाता वहीँ हिन्दू संस्कृति , देवी - देवताओं को मजाक उड़ना आम है . *आज़ादी के बाद यदि लेफ्ट द्वारा किये गये आलोचनाओं को ध्यान दें तो शायद आप हैरत में पर जाएँ , क्योंकि इन्होने किया नहि . जब नेहरु ने सोवियत संघ के कठोर कम्युनिस्ट मॉडल को अपनाया , तो इन्होने ख़ुशी मनाई . जब इंदिरा ने संस्थानों का केन्द्रीकरण किया तो इन्होने ख़ुशी मनाई . इंदिरा ने इमरजेंसी लगाई , विरोध गायब . 'करप्शन इज अन्स्टोपेबल' , 'भ्रष्टाचार अदम्य है' , इंदिरा सदन के पटल पर यह कह पाई , कम्युनिस्टों ने उन्हें 'मदर इंडिया' कह दिया . इंदिरा पूर्णतया विदेशी संकल्पना 'सेकुलरिज्म' को वोट बैंक के लिए सविधान में डालती हैं , नो विरोध . सिख विरोधी दंगा , नो विरोध . राजीव गाँधी बोफोर्स में फंसे , इन्होने बचाया . वि पि सिंह ने अदूरदर्शी मंडल के मुद्दे को उठाया , जिससे देश ऐसे दलदल में फंसा कि अब तक निकलना मुश्किल है , आये दिन जाति आधारित पार्टियाँ कुकुरमुत्ता बन कर फट्ट से खरी हो जाती हैं , कमुनिस्ट चुप रहे . जब सोनियां गाँधी को नैतिक रूप से दिवालिया लोगों द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया गया , इन्होने चुप्पी साधे रखी . और तो और उन्होंने सडयंत्र कर, पहली बार एक ऐसी प्रणाली विकसित की कि एक पुतला प्रधानमंत्री बना रहे और असल शक्ति सोनिया गाँधी के पास हो . यूँ ही नहि जवाहरलाल नेहरु ने ए आई एस एफ बनने में भूमिका अदा की , इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का विशेष सुविधा प्राप्त पूर्व छात्र होने के नाते मेरी मनोकामना यह है कि यह संस्थान अकादमिकता के सबसे ऊँचे प्रतिमानों पर पहुंचे , पर बिना विचारधारात्मक अतिवाद के बिना .
>* mark वाला पारा विवेक अग्निहोत्री के एक जबाब से लिया गया है जो उन्होंने यूनिवर्सिटी of North Carolina में दिया था .
>ओरिजनल स्तम्भ अंग्रेजी में पढने के लिए क्लिक करें https://www.dailyo.in/user/14433/avatans

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