रूपया समाजवाद और डालर
अपेक्षाकृत
मजबूत स्थिति में होने के
वाबजूद , सदियों
लम्बी देश में चल रहे बदस्तूर
लूट के कारण , आजादी
के बाद भारतीय मुद्रा वैश्विक
स्तर पर अपने मूल्य और स्थिति
को बरक़रार रखने के लिए संघर्ष
कर रहा था . तभी
भारत में समाजवाद का उदय हुआ
, सॉरी
भारत पर समाजवाद थोपा गया .
अच्छा ,
समाजवाद का
मॉडल अपनाया गया . भारत
के साथ सिंगापुर ने भी इसे
अपनाया था , पर
शुरूआती असफलता को देखते ही
उसने उसे बाय - बाय
कर दिया . भारत
असफलता के वाबजूद इसे अपनाने
की जिद्द पर ही अडा रहा ,
भारत नही कोई
और इसकी जिद कर रहा था .
इसीलिए मैंने
शुरुआत में ही कहा कि समाजवाद
थोपा गया .
खैर
समाजवाद एक ओर जहां भारतीय
अर्थव्यवस्था को कमजोर कर
रहा था वही इसकी बंद प्रकृति
का होने के कारण अन्तराष्ट्रीय
व्यापार जगत में भी भारत की
पूछ कम हो रही थी . व्यापार
के नाम पर सिर्फ इम्पोर्ट फिर
वो खाद्यान हो या तेल .
इस तरह भारतीय
मुद्रा को दोहरा झटका लगा .
1959 से
1966 तक
भारतीय रिजर्व बैंक ही अधिकतर
तेल संपन्न देशों के लिए 'रूपए'
का मुद्रण करती
थी , जिसे
'गल्फ
रूपए' या
'एक्सटर्नल
रूपी' कहते
थे . डिज़ाइन
भारतीय रूपए के सामान ही होता
था पर रंग अलग . 1966 तक
उपरोक्त कारणों के साथ -
साथ चीन का
युद्ध ,भारत
और इसकी अर्थव्यवस्था को गर्त
में ले गया . मारे
दवाब में रूपए का अवमूल्यन
किया गया . हलाकि
इससे पहले ही भारत की
खोज करने वाले महापुरुष स्वर्ग
सीधार गये , मैं
वास्को डिगामा की बात नही कर
रहा , हालांकि
उसने भी सिर्फ समुद्री रास्ता
बताया था .
अब
तक 'सऊदी
रियाल' डालर
के संपर्क में आ चूका था ,
पर जमीन पर
'गल्फ
रूपए' , भारत
की मुद्रा के बर्बाद होने तक
का प्रसार में रही .
ब्रिटिश
पोंड भी तेजी से अपनी अन्तराष्ट्रीय
जमीन खोती जा रही थी .
इससे पहले
कि विभिन्न गल्फ देश अपना
करेंसी इजाद करते ,
उसका मुद्रण
कर उसे अम्ल में लाते ,
उन्होंने
पहले से सऊदी रियाल के संपर्क
में आये , डालर
को अपनाया .
इस
सबके बावजूद भारत में समाजवाद
को थोपने का सिलसिला रुका नहि
, ना
रुका रूपए का मूल्य ह्रास .
'समाजवाद'
को संविधान
की प्रस्तावना में जोड़ा गया
, राजनितिक
पार्टियाँ इस नाम का वकालत
करती रही . समाजवाद
के नाम पर मिला क्या -
परिवारवाद
, भ्रष्टअचार
, लोकतांत्रिक
व्यवस्था के नाम पर राजशाही
, आपातकाल
.
*सरकारी
संस्थाएं सही से काम करें ,
मजबूत अदालते
हों , सही
कानून हो , इमांदार
नेता हो , भागीदारीपरक
लोकतंत्र हो ,
मानवाधिकारों
का सम्मान करने वाला और लोगों
के जीवन में लोगों को प्रतिनिधित्व
देने वाला पारदर्शी प्रशासन
हो , तो
शायद ही कोई व्यवस्था असफल
हो . और
ऐसी स्थिति में तो पूंजीवाद
भी समाजवाद के सकारात्मक
अपेक्षाओं को पूरा कर सकता .
यदि समाजवाद
की शुरुआती असफलता के बाद ही
वैकल्पिक मार्गों पर चलने की
कोशिश हो गयी होती ,
तो दुनियां
उदारवाद के नाम पर भारत को
ब्लैकमेल नही कर पाती .
सोचिये
कि गल्फ देशों में रिजर्व
बैंक ऑफ़ इडिया द्वारा मुद्रित
मुद्रा का ही प्रसार होता ,
या फिर डालर
के हावी होने से पहले रुपया
कमजोर न हुआ होता और गल्फ देश
अपनी मुद्रा को इजाद कर उसे
अम्ल में ला पाते .
हा पर ये सब
तभी होता जब भारत की खोज करने
वाले उस महापुरुष ने समाजवाद
की अंतहीन रट न लगाया होता .
*mark वाला पारा अरुंधती रॉय कि पुस्तक 'न्याय का गणित से प्रेरित है .
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